Monday, December 21, 2009

हिम्मत-ए-मर्दाँ मदद -ए- खुदा

मुद्दतोँ के बाद हम रूबरू हुए. ..
खुद मे छिपे इक इंसाँ से..
काबिज़ हुए थे हम पर कभी ..
वो मज़मे शैताँ के..
कह गया जन्नत का फरिश्ता मुझसे..
के ऐ मोमिन-ए-मौला..
कीमत-ए-मोहब्ब्त नही तय होती..
किसी मोहतर्मा की बेरूखी भरी निगाहोँ से..
वो दौलतो-शोहरत की राह हैँ टोहती..
बाकी ज़िंदगी बहा देती गमगीन आँसुओँ से..
पैदा होते नही तुझसे मुजाहिद..
किसी हसीन पर जाँ गँवाने ..
वो तो आते हैँ किसी बडे मकसद को अन्जाम तक पहुँचाने..
तो फिर क्योँ खफा है खुदसे
फौलाद मे ढले जिगर से
अपनी ताकत फिर से जगा..
अपनी पाक रूह को खुद से न जुदा..
कह गया एक नबी
जब हो मौजूद किसी शख्स मे
हिम्मत-ए-मर्दाँ,...
तो मिलती है ईनाम मे ,
मदद-ए-खुदा..

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